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जिस्म के उस पार | शाही शायरी
jism ke us par

नज़्म

जिस्म के उस पार

मीराजी

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अंधेरे कमरे में बैठा हूँ
कि भूली-भटकी कोई किरन आ के देख पाए

मगर सदा से अंधेरे कमरे की रस्म है कोई भी किरन आ के देख पाए
भला ये क्यूँ हो

कोई किरन इस को देख पाए तो उस घड़ी से
अंधेरा कमरा अंधेरा नहीं रहेगा

वो टूट कर तीरगी का इक सैल-ए-बे-कराँ बन के बह उठेगा
और उस घड़ी से इस उजाले का कोई मख़्ज़न भी रोक पाए भला ये क्यूँ हो

हज़ार सालों के फ़ासले से ये कह रहा हूँ
हज़ारों सालों के फ़ासले से मगर कोई इस को सुन रहा है ये कौन जाने

सियाह बालों की तीरगी में तुम्हारा माथा चमक रहा है
तुम्हारी आँखों में इक किरन नाच नाच कर मुझ से कह रही है

कि मेरे होंटों में है वो अमृत
हज़ारों सालों के फ़ासले से जो रिस रहा है

मगर ये सब साल नूर के साल तो नहीं तीरगी के भी साल ये नहीं हैं
ये साल तो फ़ासले की पेचीदा सिलवटें हैं

अंधेरा कमरा अंधेरा क्यूँ है
तुम्हारे बालों की तीरगी मैं निगाह गुम है

ये बंद जूड़ा जो खुल के बिखरे तो फिर किरन भी सँवर के निखरे
तुम्हारा मल्बूस इक सपीदी पे धारयों से सुझा रहा है

अंधेरे कमरे में जब किरन आई तीरगी धारियाँ बनेगी
और उस किरन से अंधेरा पल-भर उजाला बन कर पुकार उठेगा

कि भूली-भटकी यहाँ कभी तीरगी भी आए
हज़ारों सालों का फ़ासला तीरगी बना है

तुम्हारे होंटों पे गीत के फूल मुस्कुराए कि तुम ने अपने लिबास को यूँ उतार फेंका
कि जैसे रागी ने तान ली हो

तुम्हारी हर तान तीरगी की सियाह धारा बनी हुई है
कोई किरन इस से फूट पाए भला ये क्यूँ हो

सियाह कमरा तुम्हारी तानों से गूँजता है
हज़ारों सालों से गूँजता है

सियाह कमरा तुम्हारे बालों की तीरगी से चमक रहा है
सियाह कमरा लिबास की हर अछूती करवट से कह रहा है

यहाँ तुम आओ यहाँ कोई तुम को देख पाए नहीं ये मुमकिन
यहाँ किरन आई तो वो फ़ौरन अंधेरे कमरे में जा छुपेगी

और उस पे धारा लिबास की यूँ बहेगी जैसे
अंधेरा कमरा अंधेरा कमरा कभी नहीं था

वो इक किरन थी