EN اردو
जिला-वतन शहज़ाद-गान का जश्न | शाही शायरी
jila-watan shahzad-gan ka jashn

नज़्म

जिला-वतन शहज़ाद-गान का जश्न

ख़लील मामून

;

क़ब्र की मिट्टी चुरा कर भागने वालों में हम अफ़ज़ल नहीं
हम कोई क़ातिल नहीं

बिस्मिल नहीं
मुंजमिद ख़ूनीं चटानों पर दो-ज़ानू बैठ कर

घूमती सूई के रस्ते की सलीबों से टपकते
क़तरा क़तरा सुर्ख़-रू सय्याल को

उँगलियों पर गिन रहे हैं
चुन रहे हैं

मंज़र-ए-नीलोफ़री की झील में
गिरता हुआ इक आसमान-ए-नूर का ज़ख़्ख़ार शोर

हम कि अपनी तिश्नगी के सब ज़रूफ़
अपनी अपनी पस्त-क़द दहलीज़ पर तोड़ आए थे

नारियल के आसमाँ अंदोख़्ता सायों तले
लड़खड़ा कर

आतिशीं साहिल की जलती रेत पर औंधे पड़े हैं
आतिशीं सय्याल जब जब

जिस्म की सरहद पे ग़श खाए सिपाही की रगों को छेड़ता है
होश आता है

तो चारों सम्त रौशन देखते हैं
इक अलाव बे-कराँ

जिस में तमाम आसमानों की रिदाएँ जल रही हैं
और फिर

जलते गुलाबों से उभरती ज़ाफ़रानी रौशनी
हम को सलामी दे रही है