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जवाब-ए-शिकवा | शाही शायरी
jawab-e-shikwa

नज़्म

जवाब-ए-शिकवा

नश्तर अमरोहवी

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आह जब दिल से निकलती है असर रखती है
गुलशन-ए-ज़ीस्त जलाने को शरर रखती है

तोप तलवार न ये तेग़-ओ-तबर रखती है
बिंत-ए-हव्वा की तरह तीर-ए-नज़र रखती है

इतना पुर-सोज़ हुआ नाला-ए-सफ़्फ़ाक मिरा
कर गया दिल पे असर शिकवा-ए-बेबाक मिरा

ये कहा सुन के ससुर ने कि कहीं है कोई
सास चुपके से ये बोलीं कि यहीं है कोई

सालियाँ कहने लगीं क़ुर्ब-ओ-क़रीं है कोई
साले ये बोले कि मरदूद-ओ-लईं है कोई

कुछ जो समझा है तो हम-ज़ुल्फ़ के बेहतर समझा
मुझ को बेगम का सताया हुआ शौहर समझा

अपने हालात पे तुम ग़ौर ज़रा कर लो अगर
जल्द खुल जाएगी फिर सारी हक़ीक़त तुम पर

मैं ने उगने न दिया ज़ेहन में नफ़रत का शजर
तुम पे डाली है सदा मैं ने मोहब्बत की नज़र

कह के सरताज तुम्हें सर पे बिठाया मैं ने
तुम तो बेटे थे फ़क़त बाप बनाया मैं ने

मैं ने ससुराल में हर शख़्स की इज़्ज़त की है
सास ससुरे नहीं ननदों की भी ख़िदमत की है

जेठ देवर से जेठानी से मोहब्बत की है
मैं ने दिन रात मशक़्क़त ही मशक़्क़त की है

फिर भी होंटों पे कोई शिकवा गिला कुछ भी नहीं
मेरे दिन रात की मेहनत का सिला कुछ भी नहीं

सुब्ह-दम बच्चों को तय्यार कराती हूँ मैं
नाश्ता सब के लिए रोज़ बनाती हूँ मैं

बासी तुम खाते नहीं ताज़ा पकाती हूँ मैं
छोड़ने बच्चों को स्कूल भी जाती हूँ मैं

मैं कि इंसान हूँ इंसान नहीं जिन कोई
मेरी तक़दीर में छुट्टी का नहीं दिन कोई

वो भी दिन थे कि दुल्हन बन के मैं जब आई थी
साथ में जीने की मरने की क़सम खाई थी

प्यार आँखों में था आवाज़ में शहनाई थी
कभी महबूब तुम्हारी यही हरजाई थी

अपने घर के लिए ये हस्ती मिटा दी मैं ने
ज़िंदगी राह-ए-मोहब्बत में लुटा दी मैं ने

किस क़दर तुम पे गिराँ एक फ़क़त नारी है
दाल रोटी जिसे देना भी तुम्हें भारी है

मुझ से कब प्यार है औलाद तुम्हें प्यारी है
तुम ही कह दो यही आईन-ए-वफ़ादारी है

घर तो बीवी से है बीवी जो नहीं घर भी नहीं
ये डबल बेड ये तकिया नहीं चादर भी नहीं

मैं ने माना कि वो पहली सी जवानी न रही
हर शब-ए-वस्ल नई कोई कहानी न रही

क़ुल्ज़ुम-ए-हुस्न में पहली सी रवानी न रही
अब मैं पहले की तरह रात की रानी न रही

अपनी औलाद की ख़ातिर मैं जवाँ हूँ अब भी
जिस के क़दमों में है जन्नत वही माँ हूँ अब भी

थे जो अज्दाद तुम्हारे न था उन का ये शिआर
तुम हो बीवी से परेशान वो बीवी पे निसार

तुम क्या करते हो हर वक़्त ये जो तुम बेज़ार
तुम हो गुफ़्तार के ग़ाज़ी वो सरापा किरदार

अपने अज्दाद का तुम को तो कोई पास नहीं
हम तो बेहिस हैं मगर तुम भी तो हस्सास नहीं

नहीं जिन मर्दों को परवा-ए-नशेमन तुम हो
अच्छी लगती है जिसे रोज़ ही उलझन तुम हो

बन गए अपनी गृहस्ती के जो दुश्मन तुम हो
हो के ग़ैरों पे फ़िदा बीवी से बद-ज़न तुम हो

फिर से आबाद नई कोई भी वादी कर लो
किसी कलबिस्नी से अब दूसरी शादी कर लो