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जमाल | शाही शायरी
jamal

नज़्म

जमाल

मसऊद हुसैन ख़ां

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कहाँ से आ गईं रंगीनियाँ तमन्ना में
कि फिर ख़याल ने लाले खिलाए सहरा में

तिरी निगाह से मेरी नज़र में मस्ती है
तिरे जमाल में मौजें हैं उस के दरिया में

ये हो रहा है गुमाँ तेरे जिस्म-ए-ख़ूबी पर
भटक के हूर चली आई हो न दुनिया में

नज़र से कुचले हुए मोतियों की झलकारें
लबों पे रंग जो मिलता है जाम-ओ-मीना में

वो मुस्कुराते से आँखों में बे-शुमार कँवल
वो कसमसाती अदाएँ तमाम आ'ज़ा में

नपा-तुला सा तबस्सुम जची हुई सी नज़र
सनी सनी सी वो पलकें ग़ुबार-ए-सुरमा में

वो नर्म नीमा से कुंदन बदन की रंग-तरंग
बनी हुई सी वो किरनें लिबास-ए-ज़ेबा में

जो गोशे गोशे में पिन्हाँ है उस के राह-ए-गुरेज़
ख़याल गुम हुआ जाता है क़द्द-ए-रा'ना में

क़दम क़दम पे वही तमकनत का एक सवाल
है कोई दूसरा हम सा सवाद-ए-गंगा में

बता मैं तुझ से कहूँ क्या ब-जुज़ वो शौक़ की बात
कि डाल रक्खा है जिस को जवाज़-ए-मा'नी में

जमाल-ए-यार लतीफ़ आरज़ू है उस से लतीफ़
ये आई है न वो आएगा हर्फ़-ए-सादा में