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जब आँख खुली मेरी | शाही शायरी
jab aankh khuli meri

नज़्म

जब आँख खुली मेरी

वज़ीर आग़ा

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सूरज का ज़िरह-बक्तर
चमका तो मैं घबराया

टूटी हुई खिड़की से
लहराता हुआ नेज़ा

कौंदे की तरह आया
मैं दर्द से चिल्लाया

होंटों ने पढ़े मंतर
सीमाब सी पोरों ने

इक पोटली अब्रक की
छिड़की मिरे चेहरे पर

और किरनों का इक छींटा
मारा मिरी आँखों पर

आँखें मिरी चुंधियाईं
कुछ भी न नज़र आया

जब आँख खुली मेरी
देखा कि हर इक जानिब

ज़रतार सी किरनों का
इक ज़र्द समुंदर था

और ज़र्द समुंदर में
चाँदी की पहाड़ी पर

मैं पेड़ था सोने का
शाख़ों में मिरी हर सू

झंकार थी पत्तों की
उड़ती हुई चिड़ियों की

या आग की डलियों की
इक डार सी आई थी

और मुझ में समाई थी
क़दमों के तले मेरे

ज़ंजीर थी लम्हों की
मेरे ज़िरह-बक्तर से

जो कौंदा लपकता था
तारों के झरोकों तक

पल भर में पहुँचता था
मैं जिस्म के मरक़द से

बाहर भी था अंदर भी
मैं ख़ुद ही पहाड़ी था

और ख़ुद ही समुंदर भी