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जातरी | शाही शायरी
jatri

नज़्म

जातरी

मीराजी

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एक आया गया दूसरा आएगा देर से देखता हूँ यूँही रात उस की गुज़र जाएगी
मैं खड़ा हूँ यहाँ किस लिए मुझ को क्या काम है याद आता नहीं याद भी टिमटिमाता

हुआ इक दिया बन गई जिस की रुकती हुई और झिझकती हुई हर किरन बे-सदा क़हक़हा है
मगर मेरे कानों ने कैसे उसे सुन लिया एक आँधी चली चल के मिट

भी गई आज तक मेरे कानों में मौजूद है साएँ साएँ मचलती हुई और
उबलती हुई फैलती फैलती देर से मैं खड़ा हूँ यहाँ एक आया गया

दूसरा आएगा रात उस की गुज़र जाएगी एक हंगामा बरपा है देखें जिधर
आ रहे हैं कई लोग चलते हुए और टहलते हुए और रुकते हुए फिर से

बढ़ते हुए और लपकते हुए आ रहे जा रहे हैं इधर से उधर और उधर से
इधर जैसे दिल में मिरे ध्यान की लहर से एक तूफ़ान है वैसे आँखें

मिरी देखती ही चली जा रही हैं कि इक टिमटिमाते दिए की किरन ज़िंदगी को फिसलते
हुए और गिरते हुए ढब से ज़ाहिर किए जा रही है मुझे ध्यान

आता है अब तीरगी इक उजाला बनी है मगर इस उजाले से रिसती चली जा रही
हैं वो अमृत की बूँदें जिन्हें मैं हथेली पे अपनी सँभाले रहा हूँ हथेली

मगर टिमटिमाता हुआ इक दिया बन गई थी लपक से उजाला हुआ लौ गिरी फिर अंधेरा सा
छाने लगा बैठता बैठता बैठ कर एक ही पल में उठता हुआ जैसे आँधी के

तीखे थपेड़ों से दरवाज़े के ताक़ खुलते रहें बंद होते रहें
फड़फड़ाते हुए ताइर-ए-ज़ख़्म-ख़ुर्दा की मानिंद मैं देखता ही रहा एक आया

गया दूसरा आएगा सोच आई मुझे पाँव बढ़ने से इंकार करते
गए मैं खड़ा ही रहा दिल में इक बूँद ने ये कहा रात यूँही गुज़र जाएगी

दिल की इक बूँद को आँख में ले के मैं देखता ही रहा फड़फड़ाते हुए ताइर
ज़ख़्म-ख़ुर्दा की मानिंद दरवाज़े के ताक़ इक बार जब मिल गए मुझ को आहिस्ता आहिस्ता

एहसास होने लगा अब ये ज़ख़्मी परिंदा न तड़पेगा लेकिन मिरे दिल को हर वक़्त
तड़पाएगा मैं हथेली पे अपनी सँभाले रहूँगा वो अमृत की बूँदें जिन्हें आँख

से मेरी रिस्ना था लेकिन मिरी ज़िंदगी टिमटिमाता हुआ इक दिया बन गई जिस की रुकती हुई
और झिझकती हुई हर किरन बे-सदा क़हक़हा है कि इस तीरगी में कोई बात ऐसी नहीं

जिस को पहले अंधेरे में देखा हो मैं ने सफ़र ये उजाले अंधेरे का चलता
रहा है तो चलता रहेगा यही रस्म है राह की एक आया गया दूसरा

आएगा रात ऐसे गुज़र जाएगी टिमटिमाते सितारे बताते थे रस्ते की
नद्दी बही जा रही है बहे जा इस उलझन से ऐसे निकल जा कोई सीधा मंज़िल पे जाता

था लेकिन कई क़ाफ़िले भूल जाते थे अंजुम के दौर-ए-यगाना के मुबहम इशारे मगर वो
भी चलते हुए और बढ़ते हुए शाम से पहले ही देख लेते थे मक़्सूद का बंद

दरवाज़ा खुलने लगा है मगर मैं खड़ा हूँ यहाँ मुझ को क्या काम है मेरा दरवाज़ा
खुलता नहीं है मुझे फैले सहरा की सोई हुई रेग का ज़र्रा ज़र्रा यही कह रहा है

के ऐसे ख़राबे में सूखी हथेली है इक ऐसा तलवा के जिस को किसी ख़ार की नोक चुभने पे भी
कह नहीं सकती मुझ को कोई बूँद अपने लहू की पिला दो मगर मैं खड़ा हूँ यहाँ किस लिए

काम कोई नहीं है तो मैं भी इन आते हुए और जाते हुए एक दो तीन
लाखों बगूलों में मिल कर यूँही चलते चलते कहीं डूब जाता के जैसे यहाँ

बहती लहरों में कश्ती हर एक मौज को थाम लेती है अपनी हथेली के फैले कँवल
में मुझे ध्यान आता नहीं है कि इस राह में तो हर इक जाने वाले के बस

में है मंज़िल मैं चल दूँ चलूँ आइए आइए आप क्यूँ इस जगह
ऐसे चुप-चाप तन्हा खड़े हैं अगर आप कहिए तो हम इक अछूती सी टहनी से

दो फूल बस बस मुझे इस की कोई ज़रूरत नहीं है मैं इक
दोस्त का रास्ता देखता हूँ मगर वो चला भी गया है मुझे फिर भी

तस्कीन आती नहीं है कि मैं एक सहरा का बाशिंदा मालूम होने लगा हूँ ख़ुद
अपनी नज़र में मुझे अब कोई बंद दरवाज़ा खुलता नज़र आए ये बात मुमकिन नहीं है

मैं इक और आँधी का मुश्ताक़ हूँ जो मुझे अपने पर्दे में यकसर छुपा ले
मुझे अब ये महसूस होने लगा है सुहाना समाँ जितना बस में था मेरे

वो सब एक बहता सा झोंका बना है जिसे हाथ मेरे नहीं रोक सकते
कि मेरी हथेली में अमृत की बूँदें तो बाक़ी नहीं हैं फ़क़त एक फैला हुआ

ख़ुश्क बे-बर्ग बे-रंग सहरा है जिस में ये मुमकिन नहीं मैं कहूँ
एक आया गया दूसरा आएगा रात मेरी गुज़र जाएगी