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जारूब-कश | शाही शायरी
jarub-kash

नज़्म

जारूब-कश

मजीद अमजद

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आसमानों के तले सब्ज़-ओ-ख़ुनुक गोशों में
कोई होगा जिसे इक साअत-ए-राहत मिल जाए

ये घड़ी तेरे मुक़द्दर में नहीं है न सही
आसमानों के तले तल्ख़-ओ-सियह राहों पर

इतने ग़म बिखरे पड़े हैं कि अगर तू चुन ले
कोई इक ग़म तिरी क़िस्मत को बदल सकता है

आसमानों के तले तल्ख़-ओ-सियह राहों पर
तू अगर देखे तो ख़ुशियों की गुरेज़ाँ सरहद

सोज़-ए-यक-ग़म से शकेब-ए-ग़म-ए-दीगर तक है
ज़िंदगी क़हर सही ज़हर सही कुछ भी सही

आसमानों के तले तल्ख़-ओ-सियह लम्हों में
जुरआ-ए-सम के लिए इफ़्फ़त-ए-लब लाज़िम है

और तू है कि तिरे जिस्म का साया भी नजिस
तू अगर चाहे तो इन तल्ख़-ओ-सियह राहों पर

जा-ब-जा इतनी तड़पती हुई दुनियाओं में
इतने ग़म बिखरे पड़े हैं कि जिन्हें तेरी हयात

क़ूत-ए-यक-शब के तक़द्दुस में समो सकती है
काश तू हीला-ए-जारूब के पर नोच सके

काश तू सोच सके सोच सके