EN اردو
इश्क़ अपने मुजरिमों को पा-ब-जौलाँ ले चला | शाही शायरी
ishq apne mujrmon ko pa-ba-jaulan le chala

नज़्म

इश्क़ अपने मुजरिमों को पा-ब-जौलाँ ले चला

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

;

दार की रस्सियों के गुलू-बंद गर्दन में पहने हुए
गाने वाले हर इक रोज़ गाते रहे

पायलें बेड़ियों की बजाते हुए
नाचने वाले धूमें मचाते रहे

हम न इस सफ़ में थे और न उस सफ़ में थे
रास्ते में खड़े उन को तकते रहे

रश्क करते रहे
और चुप चाप आँसू बहाते रहे

लौट कर आ के देखा तो फूलों का रंग
जो कभी सुर्ख़ था ज़र्द ही ज़र्द है

अपना पहलू टटोला तो ऐसा लगा
दिल जहाँ था वहाँ दर्द ही दर्द है

गुलू में कभी तौक़ का वाहिमा
कभी पाँव में रक़्स-ए-ज़ंजीर

और फिर एक दिन इश्क़ उन्हीं की तरह
रसन-दर-गुलू पा-ब-जौलाँ हमें

उसी क़ाफ़िले में कशाँ ले चला