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इस से ज़ियादा कुछ नहीं | शाही शायरी
is se ziyaada kuchh nahin

नज़्म

इस से ज़ियादा कुछ नहीं

अहमद हमेश

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मैं नहीं जानता कि यहाँ से किसी ने मुझ से कुछ कहा
या वहाँ से किसी ने तुम से कुछ कहा

या किसी ने कुछ भी नहीं कहा
तो बिना कुछ कहे हुए ही कुछ सुन लिया होगा

नींद में चलते हुए आदमी के लिए
हमवार राह भी खाई बन जाती है

और कहीं भी गिरने के लिए
गिरने वाले को भी कुछ बताया नहीं जाता

और अगर गिराने वाला ख़ुदा के दिल में बैठा हो
तो गिरने वाले को

महज़ ये बताने के लिए कि चलो उठो
तुम्हें गिराया जाने वाला है

तो क्या वो उसे देख सकता है
सो क्यूँ न बात वहीं से शुरूअ' की जाए

जहाँ से आदमी की ज़ात ने ही
आदमी की ज़ात से कहा

कि अगर सात समुंदरों से भी बढ़ कर
तुम्हारे आँसू और तुम्हारे ग़म होंगे

तो चलो मिल के बाँट लेंगे
और तुम्हें इतना हँसाएँ

कि जीवन भर कभी रोने के लिए
एक आँसू भी नहीं मिलेगा

मगर वो ये नहीं जानती होगी
कि कभी नींद को नींद आ जाती है

बिल्कुल वैसे ही
जैसे मौत को भी मौत आती है

कोई सोया हुआ पेड़ भी
किसी सोए हुए पेड़ में सो जाता है

और यही वो समय होता है
जब ज़िंदगी के तमाम काम

बहुत ख़ूब करते हुए
आदमी की नज़र के सामने भी

तारीक दीवार आ जाती है
सो यहाँ तक पहुँच के मा'लूम हुआ

कि कुछ भी तो नहीं था
कि अगर कुछ होता भी

तो उस के होने से पहले
बहुत कुछ हो चुका होता

कोई किसी के लिए कभी नहीं जागा
कोई किसी के लिए कभी नहीं रोया

कोई किसी के लिए कभी नहीं जला
कोई किसी के लिए कभी नहीं बुझा

किसी बहुत बड़े झूट से मिले हुए
किसी बहुत बड़े सच में

न कोई झूट मिलता है न कोई सच