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इंतिज़ार बाक़ी है | शाही शायरी
intizar baqi hai

नज़्म

इंतिज़ार बाक़ी है

अब्दुल अहद साज़

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काँपती हैं होंटों पर
कितनी अन-कही बातें

गूँजते हैं कानों में
कितने अन-सुने नग़्मे

झाँकते हैं पलकों से
उँगलियों के पोरों तक

ख़्वाब कितने अन-देखे
लम्स अन-छुए कितने

नाम है तलब जिस का
मुस्तक़िल हरारत है

हसरत-आे-तमन्ना के
आँसुओं से नम लेकिन

अन-बुझे शरारों की
दाइमी मसाफ़त है

बे-बस आरज़ूओं से
दर्द की रसाई तक

क़ैद से रिहाई तक
धड़कनों की सरहद के

उस तरफ़ भी इम्काँ है
जान-आे-तन से बाहर भी

ज़िंदगी फ़रोज़ाँ है
आँख जम भी जाए तो

साँस थम भी जाए तो
दिल के तह-नशीं जज़्बे

रूह में पनपते हैं
उम्र सिर्फ़ मोहलत है

इश्क़ लम्हा-ए-दाएम
ए'तिबार बाक़ी है

मेरा ग़म सलामत है
तेरा हुस्न है क़ाएम

इंतिज़ार बाक़ी है