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इंक़लाब | शाही शायरी
inqalab

नज़्म

इंक़लाब

मख़दूम मुहिउद्दीन

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ऐ जान-ए-नग़्मा जहाँ सोगवार कब से है
तिरे लिए ये ज़मीं बे-क़रार कब से है

हुजूम-ए-शौक़ सर-ए-रहगुज़ार कब से है
गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है

न ताबनाकी-ए-रुख़ है न काकुलों का हुजूम
है ज़र्रा ज़र्रा परेशाँ कली कली मग़्मूम

है कुल जहाँ मुतअफ़्फ़िन हवाएँ सब मस्मूम
गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है

रुख़-ए-हयात पे काकुल की बरहमी ही नहीं
निगार-ए-दहर में अंदाज़-ए-मरयामी ही नहीं

मसीह ओ ख़िज़्र की कहने को कुछ कमी ही नहीं
गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है

हयात-बख़्श तराने असीर हैं कब से
गुलू-ए-ज़ेहरा में पैवस्त तीर हैं कब से है

क़फ़स में बंद तिरे हम-सफ़ीर हैं कब से
गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है

हरम के दोश पे उक़्बा का दाम है अब तक
सरों में दीन का सौदा-ए-ख़ाम है अब तक

तवहहुमात का आदम ग़ुलाम है अब तक
गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है

अभी दिमाग़ पे क़हबा-ए-सीम-ओ-ज़र है सवार
अभी रुकी ही नहीं तेशा-ज़न के ख़ून की धार

शमीम-ए-अदल से महकें ये कूचा ओ बाज़ार
गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है