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इन्फ़िरादियत | शाही शायरी
infiradiyat

नज़्म

इन्फ़िरादियत

अली सरदार जाफ़री

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आ रहा है इक सितारा आसमाँ से टूट कर
दौड़ता अपने जुनूँ की राह पर दीवाना-वार

अपने दिल के शोला-ए-सोज़ाँ में ख़ुद जलता हुआ
मुंतशिर करता हुआ दामान-ए-ज़ुल्मत में शरार

अपनी तन्हाई पे ख़ुद ही नाज़ फ़रमाता हुआ
शौक़ पर करता हुआ आईन-ए-फ़ितरत को निसार

किस क़दर बेबाक कितना तेज़ कितना गर्म-रौ
जिस से सय्यारों की आसूदा-ख़िरामी शर्मसार

मौजा-ए-दरिया इशारों से बुलाती है क़रीब
अपनी संगीन गोद फैलाए हुए है कोहसार

है हवा बेचैन आँचल में छुपाने के लिए
बढ़ रहा है कुर्रा-ए-गीती का शौक़-ए-इंतिज़ार

लेकिन ऐसा अंजुम-ए-रौशन-जबीन ओ ताबनाक
ख़ुद ही हो जाता है अपनी ताबनाकी का शिकार