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इम्कान | शाही शायरी
imkan

नज़्म

इम्कान

ज़िया जालंधरी

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मिरे लफ़्ज़ मेरे लहू की लौ
मिरे दिल की लय जिसे नूर-ए-नय की तलाश है

मिरे अश्क मेरे वो हर्फ़ हैं जो मिरे लबों पे न आ सके
मैं अगर कहूँ भी तो क्या कहूँ

कि हनूज़ मेरी ज़बाँ में है वही ना-कुशूदा-गिरह कि थी
तू सुने तो अब्र भी नग़्मा है

तू सुने तो मौज-ए-हवा भी राग की तान है
तू सुने तो पात भी फूल भी किसी गुप्त गीत के बोल हैं

गुल-ओ-यासमन हों कि मेहर-ओ-माह
हर इक अपनी सौत-ओ-सदा में कामिल-ओ-ताम है

मिरा लफ़्ज़ नाक़िस-ओ-ख़ाम है
रहा ना-तमाम जो कह सका

जो न कह सका वही बात अस्ल-ए-कलाम है
तू सुने तो कोई अजब नहीं

कि मिरी नवा का हुनर खुले
तू सुने तो कोई अजब नहीं

कि सुख़न का सातवाँ दर खुले