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इजाज़त | शाही शायरी
ijazat

नज़्म

इजाज़त

सईदुद्दीन

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वो कहते हैं
मैं कभी ज़िंदा नहीं था

इस लिए न वो मेरी हँसी के बारे में कुछ बता सकते हैं
न आँसुओं के बारे में

या ये कि जब मैं चलता था
तो मेरे पाँव ज़मीं पर ठीक तरह से

पड़ते भी थे या नहीं
उन्हों ने हमेशा मुझे बे-जान ही पाया

ऐसे
कि मेरी नब्ज़ रुकी हुई थी

दिल साकित
और जिस्म सियाह पड़ चुका था

लेकिन मेरी आँखें पूरी तरह खुली हुई थीं
जिन से उन्हें ख़ौफ़ आता था

लेकिन रफ़्ता रफ़्ता
उन का ख़ौफ़ रफ़अ' होता गया

उन का सुबूत ये है
कि वो अपनी बेकार अशिया

मेरी तरफ़ उछाल देते थे
कभी वस्ली का ख़ाली डुबा

ऐनक की टूटी हुई कमानी
या बे ताले की कोई चाबी

अगरचे इस बात से वो पूरी तरह आगाह थे
कि ऐसा करते हुए

वो एक लाश की बे-हुरमती कर रहे थे
लेकिन अब वो इस बात के गोया आदी हो गए थे

ऐसा करते हुए
उन्हें किसी क़िस्म की झिजक

या शर्मिंदगी नहीं होती थी
शायद उन्हों ने किसी वक़्त मेरी लाश को

कहीं ठिकाने लगाने के बारे में भी सोचा हो
पर ऐसा कर न पाए हों

शायद किसी ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया हो
शायद वो मेरी खुली हुई आँखें देख कर डर गए हों

शायद वो ख़ुद अपनी नब्ज़ें टटोलने
अपनी धड़कनें सुनने

और अपने जिस्म में रूनुमा होने वाली तब्दीलियों से
बुरी तरह ख़ाइफ़ होने लगे हों

अपने इस ख़ौफ़ पर क़ाबू पाने के लिए
शायद उन्हों ने अपनी बे-कार अशिया

मेरी तरफ़ उछालनी शुरूअ' कर दी हों
शायद यूँ वो अपने लिए

किसी नए मज़हब की बुनियाद डाल रहे हों
जिस में उन्हें

लाशों की बे-हुरमती की खुली छूट दे दी गई हो
मैं इन की किसी ग़लत फ़हमी को दूर करने की कोशिश नहीं करूँगा

कि मेरे मस्लक में
लाशों की बे-हुरमती की कोई गुंजाइश नहीं

ज़िंदों की भी नहीं