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ईद | शाही शायरी
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नज़्म

ईद

शिफ़ा कजगावन्वी

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चलो हम ईद मनाएँ कि जश्न का दिन है
ख़ुशी के गीत सुनाएँ कि जश्न का दिन है

रुख़ों पे फूल खिलाएँ कि जश्न का दिन है
दिलों में प्रीत जगाएँ कि जश्न का दिन है

मगर रुको ज़रा ठहरो ये सिसकियाँ कैसी
ख़ुशी कि रुत में दुखों की ये बदलियाँ कैसी

सुनो ये ग़ौर से माएँ बिलक रही हैं कहीं
ये देखो बच्चों की आँखें छलक रही हैं कहीं

किसी के ईद के जोड़े में है कफ़न आया
कहीं पे ज़ख़्मों से लिपटा हुआ बदन आया

कोई तो खिलने से पहले कली को लूट गया
कहीं दरख़्त ही अपनी ज़मीं से टूट गया

किस ने कर दिए पामाल साया-दार शजर
जड़ें कहीं पे कटीं और कहीं बचे न समर

कहाँ हैं वो कि जो ख़ुद को ख़ुदा समझते हैं
वो जो कि अम्न-ओ-अमाँ के फ़साने कहते हैं

वो जिन के हाथ में रहता है परचम-ए-इंसाँ
हुए हैं उन के सब अफ़्कार-ए-अम्न अब उर्यां

अगर हैं साहब-ए-किरदार तो ज़बाँ खोलें
अगर हैं साहब-ए-ईमाँ तो फिर वो सच बोलें

हैं मुक़्तदिर तो बस अब रोक लें हुसाम-ए-जौर
ये बहती ख़ून की नदियाँ मुसीबतों का दौर

प उन से कोई उमीद-ए-वफ़ा करे कैसे
जो बद-दुआ' हो मुजस्सम दुआ करे कैसे

जहाँ में चार तरफ़ चीख़ है कराहे हैं
सितम-रसीदा दिलों से निकलती आहें हैं

है शोरा-ए-नाला-ओ-आह-ओ-बुका चहार तरफ़
कहाँ की ईद है मातम बपा चहार तरफ़

मनाए कैसे कोई ईद हर तरफ़ ग़म है
मनाए कैसे कोई ईद आँख पुर-नम है

सुनाए कैसे कोई गीत साज़ टूट गए
जगाए कैसे कोई आस अपने छूट गए

मगर ये ईद का दिन भी तो इक हक़ीक़त है
कि वज्ह-ए-ईद समझना भी इक इबादत है

चलो कि रोते हुओं को हँसा के ईद मनाएँ
किसी के दर्द को अपना बना के ईद मनाएँ

दिलों से अपने अदावत मिटा के ईद मनाएँ
किसी के लब पे तबस्सुम सजा के ईद मनाएँ