EN اردو
ईद | शाही शायरी
id

नज़्म

ईद

नज़ीर अकबराबादी

;

यूँ लब से अपने निकले है अब बार-बार आह
करता है जिस तरह कि दिल-ए-बे-क़रार आह

हम ईद के भी दिन रहे उम्मीद-वार आह
हो जी में अपने ईद की फ़रहत से शाद-काम

ख़ूबाँ से अपने अपने लिए सब ने दिल के काम
दिल खोल खोल सब मिले आपस में ख़ास ओ आम

आग़ोश-ए-ख़ल्क़ गुल-बदनों से भरे तमाम
ख़ाली रहा पर एक हमारा कनार आह

क्या पूछते हो शोख़ से मिलने की अब ख़बर
कितना ही जुस्तुजू में फिरे हम इधर इधर

लेकिन मिला न हम से वो अय्यार फ़ित्नागर
मिलना तो इक तरफ़ है अज़ीज़ो कि भर-नज़र

पोशाक की भी हम ने न देखी बहार आह
रखते थे हम उमीद ये दिल में कि ईद को

क्या क्या गले लगावेंगे दिल-बर को शाद हो
सो तू वो आज भी न मिला शोख़-ए-हीला-जू

थी आस ईद की सो गई वो भी दोस्तो
अब देखें क्या करे दिल-ए-उम्मीद-वार आह

उस संग-दिल की हम ने ग़रज़ जब से चाह की
देखा न अपने दिल को कभी एक दम ख़ुशी

कुछ अब ही उस की जौर-ओ-तअद्दी नहीं नई
हर ईद में हमें तो सदा यास ही रही

काफ़िर कभी न हम से हुआ हम-कनार आह
इक़रार हम से था कई दिन आगे ईद से

यानी कि ईद-गाह को जावेंगे तुम को ले
आख़िर को हम को छोड़ गए साथ और के

हम हाथ मलते रह गए और राह देखते
क्या क्या ग़रज़ सहा सितम-ए-इंतिज़ार आह

क्यूँ कर लगें न दिल में मिरे हसरतों के तीर
दिन ईद के भी मुझ से हुआ वो कनारा-गीर

इस दर्द को वो समझे जो हो इश्क़ का असीर
जिस ईद में कि यार से मिलना न हो 'नज़ीर'

उस के उपर तो हैफ़ है और सद-हज़ार आह