EN اردو
इदराक | शाही शायरी
idrak

नज़्म

इदराक

मुबीन मिर्ज़ा

;

वक़्त दरिया की मानिंद बहता रहेगा सदा
जगमगाते रहेंगे सितारे

यूँही शब की पोशाक में
गुल खिलाती रहेगी हवा

ता-अबद आब में, ख़ाक में
ईस्तादा रहेंगे ख़याबाँ ख़याबाँ

ये सर्व-ओ-सनोबर यूँही
साहिलों पर यूँही

लंगर-अंदाज़ होंगे जहाज़
और बच्चे यूँही सीपियाँ चुनने

आते रहेंगे सदा
यूँही मेला रहेगा

ज़माने के कूचों में
बाज़ार में!

और इंसान ज़िंदा रहेगा सदा
एक पैकार में

इक ज़माने तलक हम भी सब की तरह
यूँही सोचा किए

यूँही समझा किए
और शब-ओ-रोज़ का बे-निशाँ क़ाफ़िला

पर्दा-ए-ग़ैब में
गुम-शुदा मंज़िलों की तरफ़

ख़ामुशी से रहा गामज़न
ज़िंदगी में अचानक फिर इक रोज़

इक हादसा हो गया
जिस की शिद्दत से इक उम्र का

सेहर-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र टूट बिखरा
तो आख़िर ये उक़्दा खुला

वक़्त दरिया है लेकिन ये ख़ुद
इक समुंदर में जा गिरता है

उस समुंदर की जानिब है
हस्ती का सारा सफ़र

आँख ने आज तक जितने मंज़र भी देखे
वो सब उस के

अपने तराशीदा थे
और दिल में धड़कता हुआ

तजरीद-ए-वहम-ओ-गुमाँ के सिवा कुछ नहीं
आरज़ू-ए-ग़म-ए-आगही ऐसी अर्ज़ां नहीं

ज़ीस्त के दूसरे रास्तों की तरह
राह-ए-कार-ए-जुनूँ इतनी आसाँ नहीं

है बुलंदी की जानिब अगर ज़िंदगी का सफ़र
फिर तो कुछ और हैं मंज़िलें आदमी के लिए

जिन के हर गाम पर, ज़िंदगी के लिए
है सबात-ए-अबद मुंतज़िर

आप-अपनी नफ़ी के अमल से
गुज़रना पड़ेगा उसे

महबस-ए-आब-ओ-गिल से
निकलना पड़ेगा उसे