इधर न देखो कि जो बहादुर
क़लम के या तेग़ के धनी थे
जो अज़्म-ओ-हिम्मत के मुद्दई थे
अब उन के हाथों में सिद्क़-ए-ईमाँ की
आज़मूदा पुरानी तलवार मुड़ गई है
जो कज-कुलह साहिब-ए-हशम थे
जो अहल-ए-दस्तार मोहतरम थे
हवस के पुर-पेच रास्तों में
कुलह किसी ने गिरौ रख दी
किसी ने दस्तार बेच दी है
उधर भी देखो
जो अपने रुख़शाँ लहू के दीनार
मुफ़्त बाज़ार में लुटा कर
नज़र से ओझल हुए
और अपनी लहद में इस वक़्त तक ग़नी हैं,
उधर भी देखो
जो हर्फ़-ए-हक़ की सलीब पर अपना तन सजा कर
जहाँ से रुख़्सत हुए
और अहल-ए-जहाँ में इस वक़्त तक नबी हैं
नज़्म
इधर न देखो
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़