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हिकायत-ए-शब | शाही शायरी
hikayat-e-shab

नज़्म

हिकायत-ए-शब

परतव रोहिला

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चुनाँचे सर-ए-शाम हम सब किसी ख़ानदान-ए-फ़रंगी से बहर-ए-मुलाक़ात निकले
यहाँ मेरा ''हम सब'' से मतलब है वो दूसरे हम-वतन और पड़ोसी कि जो मुल्क-ए-अफ़रंग की इस बड़ी

जामिआ में हुसूल-ए-ज़र-ए-इल्म-ओ-दानिश को आए हुए थे
''किसी'' से ये मतलब है हम को ख़बर तक नहीं थी कि हम सब कहाँ जा रहे हैं

कहाँ किस को किस शख़्स की मेज़बानी मिलेगी
बहर-हाल ये ताइफ़ा अजनबी मेहमानों का इक दरमियाने से घर मेज़बानों ही की रहनुमाई में पहुँचा

वहाँ हम से पहले भी कुछ लोग मौजूद थे
रिवायात-ए-बेगानगी फ़रंगी में बस्ता

तनाबों में बर्फ़ीले ठिठुरे हुए यख़-ज़दा मौसमों में मुक़य्यद
मगर जिन के चेहरों पे उन की मईशत के रस्मी शगूफ़े खिले थे

तआरुफ़ की इक मुख़्तसर तेज़ ठंडी सी गर्दान
सो आख़िरी नाम के आख़िरी हर्फ़ की डूबती चंद लहरें

सो आख़िरी हाथ के खुरदुरे चंद रेज़े
मिरे हाफ़िज़े में तो कुछ भी नहीं रह गया था

चुनाँचे तआरुफ़ के संगीन फर्शों को इक बार फिर से कुरेदा तो देखा
सतह सख़्त थी और नाख़ुन बड़े नर्म थे

इस अस्ना में इक ख़ानम मेज़बान दोनों हाथों में सैनी उठाए
नबीद-ए-मुसफ़्फ़ा ओ गुल-रंग के कुछ बिलोरीं पियाले सजाए

ब-सद-नाज़-ओ-अंदाज़ आईं
अभी इस नबीद-ए-मुसफ़्फ़ा के दो चार चक्कर हुए थे

कि बोसीदा रस्मों की ऊँची फ़सलें
तअस्सुब के तारीक ज़िंदाँ

तकल्लुफ़ की चिकनी मुँडेरें
तसन्नो की पुर-ख़ार बाढ़ें

सरासर ये सब गिर गईं और अजनबी हम-वतन बन गए