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हिज्र के पर भीग जाएँ | शाही शायरी
hijr ke par bhig jaen

नज़्म

हिज्र के पर भीग जाएँ

नोशी गिलानी

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कहाँ तक ख़ेमा-ए-दिल में छुपाएँ
अपनी आसों और प्यासों को

कहाँ तक ख़ौफ़ के बे-शक्ल सहरा की हथेली पर
कुरेदे जाएँ आँखें और

लकीरें रौशनी की फिर न बन पाएँ
हम इंसाँ हो के भी साए की ख़ुश्बू को तरस जाएँ

चलो इक दूसरे की ख़्वाहिशों की धूप में
जलते हुए आँगन की वीरानी में आँखें बंद कर लें और बरस जाएँ

यहाँ तक टूट कर बरसें कि पानी
वस्ल की मिट्टी में ख़ुश्बू गूँध ले और फिर सरों तक से गुज़र जाए

ज़मीन से आसमाँ तक एक ही मंज़र सँवर जाए
हमारे रास्तों पर आसमाँ अपनी गवाही भेज दे

ख़ुश्बू बिखर जाए
ज़मीं पाँव को छू ले

चाँदनी दिल में उतर जाए
हवा गर हिज्र की साज़िश में हिस्से-दार बन कर दरमियाँ आए

हिज्र के पर भीग जाएँ और
हवा पानी में मिल जाए