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हवेली | शाही शायरी
haweli

नज़्म

हवेली

मख़दूम मुहिउद्दीन

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एक बोसीदा हवेली यानी फ़र्सूदा समाज
ले रही है नज़अ के आलम में मुर्दों से ख़िराज

इक मुसलसल गर्द में डूबे हुए सब बाम-ओ-दर
जिस तरफ़ देखो अंधेरा जिस तरफ़ देखो खंडर

मार ओ कजदुम के ठिकाने जिस की दीवारों के चाक
उफ़ ये रख़्ने किस क़दर तारीक कितने हौल-नाक

जिन में रहते हैं महाजन जिन में बस्ते हैं अमीर
जिन में काशी के बरहमन जिन में काबे के फ़क़ीर

रहज़नों का क़स्र-ए-शूरा क़ातिलों की ख़्वाब-गाह
खिलखिलाते हैं जराएम जगमगाते हैं गुनाह

जिस जगह कटता है सर इंसाफ़ का ईमान का
रोज़ ओ शब नीलाम होता है जहाँ इंसान का

ज़ीस्त को दर्स-ए-अजल देती है जिस की बारगाह
क़हक़हा बन कर निकलती है जहाँ हर एक आह

सीम-ओ-ज़र का देवता जिस जा कभी सोता नहीं
ज़िंदगी का भूल कर जिस जा गुज़र होता नहीं

हँस रहा है ज़िंदगी पर इस तरह माज़ी का हाल
ख़ंदा-ज़न हो जिस तरह इस्मत पे क़हबा का जमाल

एक जानिब हैं वहीं इन बे-नवाओं के गिरोह
हाँ इन्हीं बे-नान ओ बे-पोशिश गदाओं के गिरोह

जिन के दिल कुचले हुए जिन की तमन्ना पाएमाल
झाँकता है जिन की आँखों से जहन्नम का जलाल

ऐ ख़ुदा-ए-दो-जहाँ ऐ वो जो हर इक दिल में है
देख तेरे हाथ का शहकार किस मंज़िल में है

जानता हूँ मौत का हम-साज़ ओ हमदम कौन है
कौन है पर्वरदिगार-ए-बज़्म-ए-मातम कौन है

कोढ़ के धब्बे छुपा सकता नहीं मल्बूस-ए-दीं
भूक के शोले बुझ सकता नहीं रूह-उल-अमीं

ऐ जवाँ-साल-ए-जहाँ जान-ए-जहान-ए-ज़िंदगी
सारबान-ए-ज़िंदगी रूह-ए-रवान-ए-ज़िंदगी!

जिस के ख़ून-ए-गरम से बज़्म-ए-चराग़ाँ ज़िंदगी
जिस के फ़िरदौसी तनफ़्फ़ुस से गुलिस्ताँ ज़िंदगी

बिजलियाँ जिस की कनीज़ें ज़लज़ले जिस के सफ़ीर
जिस का दिल ख़ैबर-शिकन जिस की नज़र अर्जुन का तीर

हाँ वो नग़्मा छेड़ जिस से मुस्कुराए ज़िंदगी
तो बजा-ए-साज़-ए-उल्फ़त और गाए ज़िंदगी

आ इन्हीं खंडरों पे आज़ादी का परचम खोल दें
आ इन्हीं खंडरों पे आज़ादी का परचम खोल दें