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हवा हर इक सम्त बह रही है | शाही शायरी
hawa har ek samt bah rahi hai

नज़्म

हवा हर इक सम्त बह रही है

अबरार अहमद

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हवा हर इक सम्त बह रही है
जिलौ में कूचे मकान ले कर

सफ़र के बे-अंत पानियों की थकान ले कर
जो आँख के इज्ज़ से परे हैं

उन्ही ज़मानों का ज्ञान ले कर
तिरे इलाक़े की सरहदों के निशान ले कर

हवा हर इक सम्त बह रही है
ज़मीन चुप

आसमान वुसअ'त में खो गया है
फ़ज़ा सितारों की फ़स्ल से लहलहा रही है

मकाँ मकीनों की आहटों से धड़क रहे हैं
झुके झुके नम-ज़दा दरीचों में

आँख कोई रुकी हुई है
फ़सील-ए-शहर-ए-मुराद पर

ना-मुराद आहट अटक गई है
ये ख़ाक तेरी मिरी सदा के दयार में

फिर भटक गई है
दयार शाम-ओ-सहर के अंदर

निगार-ए-दश्त-ओ-शजर के अंदर
सवाद-ए-जान-ओ-नज़र के अंदर

ख़मोशी बहर-ओ-बर के अंदर
रिदा-ए-सुब्ह-ए-ख़बर के अंदर

अज़िय्यत रोज़-ओ-शब में
होने की ज़िल्लतों में निढाल सुब्हों की

ओस में भीगती ठिठुरती
ख़मोशियों के भँवर के अंदर

दिलों से बाहर
दिलों के अंदर

हवा हर इक सम्त बह रही है