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हरी-भरी इक शाख़-ए-बदन पर | शाही शायरी
hari-bhari ek shaKH-e-badan par

नज़्म

हरी-भरी इक शाख़-ए-बदन पर

अमजद इस्लाम अमजद

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हरी-भरी इक शाख़-ए-बदन पर
मेरे लबों के लम्स से फूटे

ऐसे ऐसे फूल
सादा से मल्बूस में भी वो सातों रंग खिलाती है

अपने हुस्न की तेज़ महक से
लोगों के अम्बोह में बैठी यूँ घबरा सी जाती है

जैसे बातें करते कोई!
जाता है कुछ भूल

मेरे लबों के लम्स से फूटे
हरी-भरी एक शाख़-ए-बदन पर

कैसे कैसे फूल