वो दर्द-ए-आरज़ू
जो लर्ज़ा-बर-अंदाम था पहनाए आलम में
वो हर्फ़-ए-तिश्नगी
जो नग़मा-बर-लब था दबिस्तान-ए-शब-ए-ग़म में
वो इक दुनिया-ए-ना-पैदा-कराँ थी
आसमाँ की वुसअतें जिस में समाई थीं
बड़े गहरे समुंदर मौजज़न थे कुर्रा-ए-दिल में
जिन्हें इक जुस्तजू-ए-ख़ाम ने ख़ामोश कर डाला
बहुत मुँह ज़ोर मौजें थीं
जिन्हें ख़ुद हम ने पाबंद-ए-सलासिल कर दिया इक दिन
फ़राज़-ए-कोह से आते हुए बेताब दरिया थे
जिन्हें इक दाएरे में रक़्स करना हम ने सिखलाया
तक़ाज़े होश-मंदी के हमारे राहबर निकले
फ़राज़-ए-आरज़ू से हम
नशेब-ए-आफ़ियत में आन निकले
और मआल-ए-रोज़-ओ-शब के बेश ओ कम में गुम हुए
अपनी मता-ए-ख़ुद-निगाही छोड़ आए
इक सुकूत-ए-आहनी हमराह ले आए
मुदावा-ए-अलम कोई नहीं
बज़्म-ए-नशात ओ दर्द-ए-ग़म कोई नहीं
इक हू का आलम है
खड़े हैं साहिल-ए-हस्ती पे हम
जीने के बे-पायाँ बहाने छोड़ आए
इक सुकूत-ए-आहनी हमराह ले आए
हमारी याद के कश्कोल ख़ाली हैं
हमारी रूह का नग़्मा कहाँ है?
नज़्म
हमारी रूह का नग़्मा कहाँ है?
साजिदा ज़ैदी