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हम तो मजबूर थे इस दिल से | शाही शायरी
hum to majbur the is dil se

नज़्म

हम तो मजबूर थे इस दिल से

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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हम तो मजबूर थे इस दिल से कि जिस में हर दम
गर्दिश-ए-ख़ूँ से वो कोहराम बपा रहता है

जैसे रिंदान-ए-बला-नोश जो मिल बैठें बहम
मय-कदे में सफ़र-ए-जाम बपा रहता है

सोज़-ए-ख़ातिर को मिला जब भी सहारा कोई
दाग़-ए-हिरमान कोई, दर्द-ए-तमन्ना कोई

मरहम-ए-यास से माइल-ब-शिफ़ा होने लगा
ज़ख़्म-ए-उम्मीद कोई फिर से हरा होने लगा

हम तो मजबूर थे इस दिल से कि जिस की ज़िद पर
हम ने उस रात के माथे पे सहर की तहरीर

जिस के दामन में अँधेरे के सिवा कुछ भी न था
हम ने इस दश्त को ठहरा लिया फ़िरदौस-ए-नज़ीर

जिस में जुज़ सनअत-ए-ख़ून-ए-सर-ए-पा कुछ भी न था
दिल को ताबीर कोई और गवारा ही न थी

कुल्फ़त-ए-ज़ीस्त तो मंज़ूर थी हर तौर मगर
राहत-ए-मर्ग किसी तौर गवारा ही न थी