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हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं | शाही शायरी
hum to majbur-e-wafa hain

नज़्म

हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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तुझ को कितनों का लहू चाहिए ऐ अर्ज़-ए-वतन
जो तिरे आरिज़-ए-बे-रंग को गुलनार करें

कितनी आहों से कलेजा तिरा ठंडा होगा
कितने आँसू तिरे सहराओं को गुलज़ार करें

तेरे ऐवानों में पुर्ज़े हुए पैमाँ कितने
कितने वादे जो न आसूदा-ए-इक़रार हुए

कितनी आँखों को नज़र खा गई बद-ख़्वाहों की
ख़्वाब कितने तिरी शह-राहों में संगसार हुए

''बला-कशान-ए-मोहब्बत पे जो हुआ सो हुआ
जो मुझ पे गुज़री मत उस से कहो, हुआ सो हुआ

मबादा हो कोई ज़ालिम तिरा गरेबाँ-गीर
लहू के दाग़ तू दामन से धो, हुआ सो हुआ''

हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं मगर ऐ जान-ए-जहाँ
अपने उश्शाक़ से ऐसे भी कोई करता है

तेरी महफ़िल को ख़ुदा रक्खे अबद तक क़ाएम
हम तो मेहमाँ हैं घड़ी भर के हमारा क्या है