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हम लोग | शाही शायरी
hum log

नज़्म

हम लोग

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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आओ उस याद को सीने से लगा कर सो जाएँ
आओ सोचें कि बस इक हम ही नहीं तीरा-नसीब

अपने ऐसे कई आशुफ़्ता-जिगर और भी हैं
एक बे-नाम थकन एक पुर-असरार कसक

दिल पे वो बोझ कि भूले से भी पूछे जो कोई
आँख से जलती हुई रूह का लावा बह जाए

चारासाज़ी के हर अंदाज़ का गहरा नश्तर
ग़म-गुसारी की रिवायात में उलझे हुए ज़ख़्म

दर्दमंदी की ख़राशें जो मिटाए न मिटें
अपने ऐसे कई आशुफ़्ता-जिगर और भी हैं

लेकिन ऐ वक़्त वो साहिब-नज़राँ कैसे हैं
कोई उस देस का मिल जाए तो इतना पूछें

आज-कल अपने मसीहा-नफ़सां कैसे हैं
आँधियाँ तो ये सुना है कि उधर भी आईं

कोंपलें कैसी हैं शीशों के मकाँ कैसे हैं