आओ उस याद को सीने से लगा कर सो जाएँ
आओ सोचें कि बस इक हम ही नहीं तीरा-नसीब
अपने ऐसे कई आशुफ़्ता-जिगर और भी हैं
एक बे-नाम थकन एक पुर-असरार कसक
दिल पे वो बोझ कि भूले से भी पूछे जो कोई
आँख से जलती हुई रूह का लावा बह जाए
चारासाज़ी के हर अंदाज़ का गहरा नश्तर
ग़म-गुसारी की रिवायात में उलझे हुए ज़ख़्म
दर्दमंदी की ख़राशें जो मिटाए न मिटें
अपने ऐसे कई आशुफ़्ता-जिगर और भी हैं
लेकिन ऐ वक़्त वो साहिब-नज़राँ कैसे हैं
कोई उस देस का मिल जाए तो इतना पूछें
आज-कल अपने मसीहा-नफ़सां कैसे हैं
आँधियाँ तो ये सुना है कि उधर भी आईं
कोंपलें कैसी हैं शीशों के मकाँ कैसे हैं
नज़्म
हम लोग
मुस्तफ़ा ज़ैदी