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हज़िर-ग़ाएब | शाही शायरी
hazir-ghaeb

नज़्म

हज़िर-ग़ाएब

हमीदा शाहीन

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इशारा किस ने तोड़ा है
कि चौराहे के बीचों-बीच

हम इक दूसरे से इस तरह टकरा गए हैं
ये चारों रास्ते

हम ने मोहब्बत की कुदालों से तराशे थे
हमें फूलों पे चलने का इशारा चाहिए था

मगर रिश्तों के बादल जो कभी दिल पर बरसते थे
तो हरियाली का मौसम चारों जानिब फैल जाता था

वो बादल काँच के मानिंद यूँ टूटे फ़ज़ाओं में
कि हर रस्ता नुकीली किर्चियों की सुरमई बारिश में भीगा है

ये चौराहा
कि जो अपने मिलन का इस्तिआ'रा था

तमाशा-गाह में बदला
मुसाफ़िर एक-दूजे के मुक़ाबिल आ ही जाते हैं

मगर अपना सफ़र कैसे तसादुम में ढला आख़िर
उसे इक हादसे की शक्ल कैसे और किस ने दी

सफ़र को सानेहे का पैरहन पहना के
चौराहे के बीचों-बीच इस्तादा किया जिस ने

उसे हम किस तरह ढूँडें
उसे हम कैसे पहचानें

कि हर-सू ख़ुशनुमा चेहरे कचूमर हो के बिखरे हैं
वो मलग़ूबा जो उस अंधे तसादुम का नतीजा है

उसे किस शक्ल में ढालें