EN اردو
हाँ मेरी महबूबा | शाही शायरी
han meri mahbuba

नज़्म

हाँ मेरी महबूबा

सरमद सहबाई

;

तू न तो कोई भेद है
और न ही भेद भरी थैली का छुटा हुआ कोई ऐन महबूबा

हाँ मेरी महबूबा
तेरा नाम पता और शजरा-ए-नसब तो जानते हैं हम

अंदर बाहर
ज़ाहिर बातिन

दोनों सम्त ही आने जाने वाले हैं हम
तेरे घर के भेदी हैं ओ भेदन बारी

कभी हक़ीक़ी कभी मजाज़ी
तरह तरह से तेरे आम से जिस्म की लज़्ज़त ले लेते हैं

अपना तो कुछ भी नहीं जाता
लफ़्ज़ से लफ़्ज़ बनाने वाले

कोई भी ग़म हो
लफ़्ज़ की गोली रंग बदलते लम्हों की गंगा में घोल के पी जाते हैं

सारे गुनाह सियासी
अख़लाक़ी रूहानी

अपने साथ लिपट कर ख़्वाब की गहरी बे-होशी में
सो जाते हैं

दूसरे दिन तू नया स्वाँग रचा लेती है
हम भी अपने अपने नुस्ख़े बदल बदल कर जी लेते हैं