खुली सड़क वीरान पड़ी थी
बहुत अजब थी शाम
ऊँचा क़द और चाल निराली
नज़रें ख़ूँ-आशाम
सारे बदन पर मचा हुआ था
रंगों का कोहराम
लाल होंट यूँ दहक रहे थे
जैसे लहू का जाम
ऐसा हुस्न था उस लड़की में
ठिठक गए सब लोग
कैसे ख़ुश ख़ुश चले थे घर को
लग गया कैसा रोग
नज़्म
गुज़रगाह पर तमाशा
मुनीर नियाज़ी