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गर्ल्स कॉलेज की लारी | शाही शायरी
girls college ki lari

नज़्म

गर्ल्स कॉलेज की लारी

जाँ निसार अख़्तर

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फ़ज़ाओं में है सुब्ह का रंग तारी
गई है अभी गर्ल्स कॉलेज की लारी

गई है अभी गूँजती गुनगुनाती
ज़माने की रफ़्तार का राग गाती

लचकती हुई सी छलकती हुई सी
बहकती हुई सी महकती हुई सी

वो सड़कों पे फूलों की धारी सी बनती
इधर से उधर से हसीनों को चुनती

झलकते वो शीशों में शादाब चेहरे
वो कलियाँ सी खुलती हुई मुँह अंधेरे

वो माथे पे साड़ी के रंगीं किनारे
सहर से निकलती शफ़क़ के इशारे

किसी की अदा से अयाँ ख़ुश-मज़ाक़ी
किसी की निगाहों में कुछ नींद बाक़ी

किसी की नज़र में मोहब्बत के दोहे
सखी री ये जीवन पिया बिन न सोहे

ये खिड़की का रंगीन शीशा गिराए
वो शीशे से रंगीन चेहरा मिलाए

ये चलती ज़मीं पे निगाहें जमाती
वो होंटों में अपने क़लम को दबाती

ये खिड़की से इक हाथ बाहर निकाले
वो ज़ानू पे गिरती किताबें सँभाले

किसी को वो हर बार तेवरी सी चढ़ती
दुकानों के तख़्ते अधूरे से पढ़ती

कोई इक तरफ़ को सिमटती हुई सी
किनारे को साड़ी के बटती हुई सी

वो लारी में गूँजे हुए ज़मज़मे से
दबी मुस्कुराहट सुबुक क़हक़हे से

वो लहजों में चाँदी खनकती हुई सी
वो नज़रों से कलियाँ चटकती हुई सी

सरों से वो आँचल ढलकते हुए से
वो शानों से साग़र छलकते हुए से

जवानी निगाहों में बहकी हुई सी
मोहब्बत तख़य्युल में बहकी हुई सी

वो आपस की छेड़ें वो झूटे फ़साने
कोई उन की बातों को कैसे न माने

फ़साना भी उन का तराना भी उन का
जवानी भी उन की ज़माना भी उन का