रात दिन सिलसिला-ए-उम्र-ए-रवाँ की कड़ियाँ
कल जहाँ रूह झुलस जाती थी
अपने साए से भी आँच आती थी
आज उसी दश्त पे सावन की लगी हैं झड़ियाँ
रात दिन सिलसिला-ए-उम्र-ए-रवाँ की कड़ियाँ
शब को जो वादियाँ सुनसान रहीं
सुब्ह यूँ ओस से आरास्ता थीं
हर तरफ़ मोतियों की जैसे तनी हुई लड़ियाँ
रात दिन सिलसिला-ए-उम्र-ए-रवाँ की कड़ियाँ
तोड़ कर पाँव न बैठो आओ!
सुब्ह के और क़रीब आ जाओ!
यूँ तो हर हाल में कटती ही रहेंगी घड़ियाँ
रात दिन सिलसिला-ए-उम्र-ए-रवाँ की कड़ियाँ
नज़्म
गीत
अहमद नदीम क़ासमी