EN اردو
घटा छाई तो क्या | शाही शायरी
ghaTa chhai to kya

नज़्म

घटा छाई तो क्या

जोश मलीहाबादी

;

छट गए जब आप ही ऊदी घटा छाई तो क्या
तुर्बत-ए-पामाल के सब्ज़े पे लहर आई तो क्या

जब ज़रूरत ही रही बाक़ी न लहन-ओ-रंग की
कोयलें कूकीं तो क्या सावन की रुत आई तो क्या

हिज्र के आलाम से जब छुट चुकी नब्ज़-ए-नशात
अब हवा ने ख़ार-ओ-ख़स में रूह दौड़ाई तो क्या

हो चुकी ज़ौक़-ए-तबस्सुम ही से जब बेगानगी
अब चमन-अफ़रोज़ फूलों को हँसी आई तो क्या

मुड़ चुकी जब मौत के जादे की जानिब ज़िंदगी
अब किसी ने आफ़ियत की राह दिखलाई तो क्या

हर नफ़स के साथ दिल से जब धुआँ उठने लगा
बादलों से छन के अब ठंडी हवा आई तो क्या

सामने जब आप के गेसू की लहरें ही नहीं
बदलियों ने चर्ख़ पर अब ज़ुल्फ़ बिखराई तो क्या

हो चुका पायाब जब बहर-ए-सर-ओ-बर्ग-ए-शबाब
अब समुंदर की जवानी बाढ़ पर आई तो क्या

ग़ुंचा-ए-अहद-ए-तरब ही मिल चुका अब ख़ाक में
ख़ाक-ए-गुलशन अब गुल-ए-तर बन के इतराई तो क्या

मिट चुके जब वालिहाना बाँकपन के वलवले
आई अब दोशीज़ा-ए-मौसम को अंगड़ाई तो क्या

खुल चुका जब परचम-ए-ग़म ज़िंदगी के क़स्र पर
अब हवाओं ने कमर पौदों की लचकाई तो क्या

आँसुओं में बह गईं जब ख़ून की जौलानियाँ
जंगलों की छाँव में बरसात इठलाई तो क्या

'जोश' के पहलू में जब तुम ही मचल सकते नहीं
फिर घटा के दामनों में बर्क़ लहराई तो क्या