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घर की रौनक़ | शाही शायरी
ghar ki raunaq

नज़्म

घर की रौनक़

रज़ा नक़वी वाही

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हम अपने अहल सियासत के दिल से क़ाएल हैं
कि हक़ में क़ौम के वो मादर-ए-मसाइल हैं

क़दम क़दम पे नए गुल खिलाते रहते हैं
तरह तरह के मसाइल उगाते रहते हैं

कभी ये धुन है कि सूबों की फिर से हो तश्कील
कभी ये ज़िद है कि हद-बिंदियाँ न हों तब्दील

कभी ये शोर करो ख़त्म चोर-बाज़ारी
मुनाफ़ा-ख़ोरों की लेकिन न हो गिरफ़्तारी

बराए-बहस खड़ा है कभी ये हंगामा
लिबास क़ौम का धोती हो या कि पाजामा

हर एक बहस में कुछ किश्त-ओ-ख़ूँ ज़रूरी है
नहीं तो जो भी है तहरीक वो अधूरी है

हर एक फ़ित्ना-ओ-शोरिश का आख़िरी जल्वा
मुज़ाहरात ओ जुलूस ओ तसादुम ओ बलवा

यूँही उठाई गई बहस जब ज़बाँ के लिए
''सुख़न बहाना हुआ मर्ग-ए-ना-गहाँ के लिए''

वो मसअला कि जो दानिश-कदों में हल होता
बला से आज अगर तय न होता कल होता

उसे भी अहल-ए-सियासत ने कर लिया इग़वा
और इस के ब'अद वो सब कुछ हुआ जो होना था

निफ़ाक़ ओ बुग़्ज़ ओ तअस्सुब के आ गए रेले
ज़बाँ की आड़ में अहल-ए-फ़साद खुल-खेले

मुख़ालिफ़त में हुई जा-ब-जा सफ़-आराई
जुलूस ले के चले इक तरफ़ से बलवाई

लबों पे ग़लग़ला-ए-''इंक़िलाब ज़िंदाबाद''
मगर दिलों मैं दबाए हुए शरार-ए-फ़साद

दुकानें लौटी गईं राह-गीर मारे गए
घरों में आग लगी तिफ़्ल ओ पीर मारे गए

वो पहला शख़्स जौ खा कर छुरे का ज़ख़्म गिरा
मज़े की बात तो ये है, ग़रीब गूँगा था

मज़ीद ये कि इसे जाँ से मारने वाले
किसी ज़बान से वाक़िफ़ न थे ख़ुद अन-पढ़ थे