EN اردو
गवाही | शाही शायरी
gawahi

नज़्म

गवाही

मंसूरा अहमद

;

वो सीढ़ी जो मिरे दिल से
तुम्हारे दल के गुम्बद पर उतरती है

शिकस्ता है
वो खिड़की जो तुम्हारे घर में खुलती है

मिरी पहचान और मकड़ी के जालों से अटी है
ज़ंग-ख़ुर्दा है

गवाही दे नहीं सकते न दो
लेकिन मिरा इक काम तो कर दो

मिरी पहचान में उलझे हुए मकड़ी के सब जाले
मुझे दे दो

कोई तो हो जो मुझ को मेरे होने की गवाही दे