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गंगा | शाही शायरी
ganga

नज़्म

गंगा

सुरूर जहानाबादी

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ऐ आब-रूद-ए-गंगा उफ़ री तिरी सफ़ाई
ये तेरा हुस्न दिल-कश ये तर्ज़-ओ-दिल-रुबाई

तेरी तजल्लियाँ हैं जल्वा-फ़रोश मा'नी
तनवीर में है तेरी इक शान-ए-किब्रियाई

जमुना तिरी सहेली गो साथ की है खेली
उस में मगर कहाँ है तेरी सी जाँ-फ़ज़ाई

बे-लौस तेरा दामन है दाग़-ए-मासियत से
मौज़ूँ है तेरे क़द पर मल्बूस-ए-पारसाई

दिल-बंद हम हैं तेरे लख़्त-ए-जिगर हैं तेरे
नख़्ल-ए-मुराद है तौ और हम समर हैं तेरे

मीनू-सवाद तुझ से हैं वादियाँ हमारी
और किश्त-ए-आरज़ू है रश्क-ए-जिनाँ हमारी

वो दिन भी होगा होंगे जब हम ग़रीक़-ए-रहमत
और तेरी नज़्र होंगी ये हड्डियाँ हमारी

गंगा में फेंक आना बा'द-ए-फ़ना उठा कर
बर्बाद हो न मिट्टी ओ आसमाँ हमारी

यारब न दफ़्न कर के अहबाब भूल जाएँ
ले कर हमारे ख़ुश ख़ुश गंगा को फूल जाएँ

ओ पाक नाज़नीन ओ फूलों के गहने वाली
सरसब्ज़ वादियों के दामन में बहने वाली

ओ नाज़-आफ़रीं ओ सिद्क़-ओ-सफ़ा की देवी
ओ इफ़्फ़त-ए-मुजस्सम पर्बत की रहने वाली

सल्ले-अला ये तेरी मौजों का गुनगुनाना
वहदत का ये तराना ओ चुप न रहने वाली

हुस्न-ए-ग़यूर तेरा है बे-नियाज़ हस्ती
तो बहर-ए-मा'रफ़त है ओ पाक-बाज़ हस्ती

हाँ तुझ को जुस्तुजू है किस बहर-ए-बे-कराँ की
हम पर तो कुछ हक़ीक़त खुलती नहीं जहाँ की

ऐ पर्दा-सोज़ इम्काँ ऐ जल्वा-रेज़ इरफ़ाँ
तो शम-ए-अंजुमन है किस बज़्म-ए-दिल-सिताँ की

क्यूँ जादा-ए-तलब में फिरती कशाँ कशाँ है
तुझ को तलाश है किस गुम-गश्ता कारवाँ की

जाती है तू कहाँ को आती है तू कहाँ से
दिल-बस्तगी है तुझ को किस बहर-ए-बे-निशाँ से

आई नज़र तजल्ली जब शाहिद अज़ल की
ज़र्रों में जा के चमकी फूलों में जा के झलकी

हिन्दोस्तान है इक दरिया-ए-हुस्न-ए-क़ुदरत
और उस में पंखुड़ी है तू ख़ुशनुमा कँवल की

निकली हिमालिया से महव-ए-ख़रोश हो कर
तू आह तिश्ना-लब थी वो जल्वा-ए-अज़ल की

करती हुई ज़मीं पर मोती निसार आई
दर्शन को आह हर के तू हरिद्वार आई

ये जोश-ए-सब्ज़ा-ए-गुल ये तेरी आब-बारी
क़ुदरत के चप्पे चप्पे पर ये शगूफ़ा-कारी

हिन्दोस्ताँ को तू ने जन्नत-निशाँ बनाया
नहरें कहाँ कहाँ हैं तेरे करम की जारी

ऐ आब-रूद-ए-गंगा मौजों में तेरे मिल कर
मौज-ए-सराब-ए-हस्ती हो बे-निशाँ हमारी

बा'द-ए-फ़ना हमारे फूलों में बू हो तेरी
गुम हों रह-ए-तलब में तो जुस्तुजू हो तेरी

आए अजल की ज़ौ पर जब अपनी उम्र-ए-फ़ानी
और ख़त्म रफ़्ता रफ़्ता हो सैल-ए-ज़िंदगानी

दुनिया से आह जब हो अपनी सफ़र का सामाँ
बालीं पे अक़रबाँ हों सरगर्म-ए-नौहा-ख़्वानी

जब होंट ख़ुश्क हों और दुश्वार हो तनफ़्फ़ुस
अहबाब अपने मुँह में टपकाएँ तेरा पानी

हँसते हुए जहाँ से हम शाद-काम जाएँ
दुनिया से पी के तेरी उल्फ़त का जाम जाएँ