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ग़म-गुसारी | शाही शायरी
gham-gusari

नज़्म

ग़म-गुसारी

अहमद राही

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दोस्त मायूस न हो
सिलसिले बनते बिगड़ते ही रहे हैं अक्सर

तेरी पलकों पे ये अश्कों के सितारे कैसे
तुझ को ग़म है तिरी महबूब तुझे मिल न सकी

और जो ज़ीस्त तराशी थी तिरे ख़्वाबों ने
जब पड़ी चोट हक़ाएक़ की तो वो टूट गई

तुझ को मालूम है मैं ने भी मोहब्बत की थी
और अंजाम-ए-मोहब्बत भी है मालूम तुझे

तुझ से पहले भी बुझे हैं यहाँ लाखों ही चराग़
तेरी नाकामी नई बात नहीं दोस्त मेरे

किस ने पाई है ग़म-ए-ज़ीस्त की तल्ख़ी से नजात
चार-ओ-नाचार ये ज़हराब सभी पीते हैं

जाँ लुटा देने के फ़र्सूदा फ़सानों पे न जा
कौन मरता है मोहब्बत में सभी जीते हैं

वक़्त हर ज़ख़्म को हर ग़म को मिटा देता है
वक़्त के साथ ये सदमा भी गुज़र जाएगा

और ये बातें जो दोहराई हैं मैं ने इस वक़्त
तू भी इक रोज़ इन्ही बातों को दोहराएगा

दोस्त मायूस न हो!
सिलसिले बनते बिगड़ते ही रहे हैं अक्सर