कोई ग़ैर-मरई सी ताक़त तो होगी
जिलौ में जो ले कर
हर इक रूह-ए-तिफ़्ल-ओ-जवाँ को
ख़मोशी से सू-ए-फ़लक कूच करती है अक्सर
कोई बाप मासूम बेटे को थामे
दवा दे रहा है, हर इक साँस के ज़ेर-ओ-बम पर नज़र है
उधर उस की जाँ जिस्म से जा रही है
मगर कुछ नज़र भी न आए, समझ में न आए
अभी खेलता था, अभी देखता था
अभी तो, अभी, हाँ अभी बंद आँखें हुई हैं
ये देखो लबों पर,
अजब एक मासूम सी मुस्कुराहट है बाक़ी
मगर कोई जुम्बिश नहीं है
रमक़ ज़िंदगी की न बाक़ी है कोई
कोई ग़ैर-मरई सी ताक़त तो होगी,
जो आहिस्तगी से चली आती होगी
ख़मोशी से आग़ोश में अपनी,
मासूम रूहों को ले कर चली जाती होगी
यक़ीनन कोई ग़ैर-मरई सी ताक़त है वर्ना
अगर कोई मरई सी ताक़त जो होती
तो नादान इंसाँ बहुत ग़ुल मचाता
मगर ये निज़ाम-ए-इलाही बदलता नहीं है

नज़्म
ग़ैर-मरई ताक़त
कौसर मज़हरी