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'ग़ालिब' | शाही शायरी
ghaalib

नज़्म

'ग़ालिब'

मख़दूम मुहिउद्दीन

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तुम जो आ जाओ आज दिल्ली में
ख़ुद को पाओगे अजनबी की तरह

तुम फिरोगे भटकते रस्तों में
एक बे-चेहरा ज़िंदगी की तरह

दिन है दस्त-ए-ख़सीस की मानिंद
रात है दामन-ए-तही की तरह

पंजा-ए-ज़र-गरी ओ ज़र-गीरी
आम है रस्म-ए-रहज़नी की तरह

आज हर मय-कदे में है कोहराम
हर गली है तिरी गली की तरह

वो ज़बाँ जिस का नाम है उर्दू
उठ न जाए कहीं ख़ुशी की तरह

हम-ज़बाँ कुछ इधर उधर साए
नज़र आएँगे आदमी की तरह

तुम थे अपनी शिकस्त की आवाज़
आज सब चुप हैं मुंसिफ़ी की तरह

आ रही है निदा बहारों से
एक गुमनाम रौशनी की तरह

इस अँधेरे में इक रुपहली लकीर
एक आवाज़-ए-हक़ नबी की तरह!