तुम जो आ जाओ आज दिल्ली में
ख़ुद को पाओगे अजनबी की तरह
तुम फिरोगे भटकते रस्तों में
एक बे-चेहरा ज़िंदगी की तरह
दिन है दस्त-ए-ख़सीस की मानिंद
रात है दामन-ए-तही की तरह
पंजा-ए-ज़र-गरी ओ ज़र-गीरी
आम है रस्म-ए-रहज़नी की तरह
आज हर मय-कदे में है कोहराम
हर गली है तिरी गली की तरह
वो ज़बाँ जिस का नाम है उर्दू
उठ न जाए कहीं ख़ुशी की तरह
हम-ज़बाँ कुछ इधर उधर साए
नज़र आएँगे आदमी की तरह
तुम थे अपनी शिकस्त की आवाज़
आज सब चुप हैं मुंसिफ़ी की तरह
आ रही है निदा बहारों से
एक गुमनाम रौशनी की तरह
इस अँधेरे में इक रुपहली लकीर
एक आवाज़-ए-हक़ नबी की तरह!

नज़्म
'ग़ालिब'
मख़दूम मुहिउद्दीन