EN اردو
उर्मिला | शाही शायरी
urmila

नज़्म

उर्मिला

त्रिपुरारि

;

ये रामायन
जो हिंदुस्तान की रग रग में शामिल है

जिसे इक बाल्मीकि नाम के शाइ'र ने लिक्खा था
बहुत ही ख़ूबसूरत एक एपिक है

फ़साना-दर-फ़साना बात कोई मुंजमिद है
इमोशन क़ैद हैं लाखों तरह के

कई किरदार हैं जो साहब-ए-किरदार लगते हैं
मगर इक बात है

जो मुद्दतों से मुझ को खलती है
कि अफ़्साने में

सब के दर्द-ओ-ग़म का ज़िक्र मिलता है
मगर वो एक लड़की

फूल से भी सौ गुना नाज़ुक
जो सीता की बहन थी

और जिस की माँग में सिंदूर भरते वक़्त ही
श्री राम के भाई लखन ने

आग की मौजूदगी में ये कहा था
मैं तुम से ज़िंदगी-भर इश्क़ फ़रमाया करूँगा

और साए की तरह ही साथ में हर-दम रहूँगा
जो लड़की एक पल में

सात जन्मों के लिए बीवी लखन की हो गई थी
वही लड़की

जिसे सब उर्मिला कह कर बुलाते थे
जो अपने बाप के सीने से लग कर वक़्त-ए-रुख़्सत ख़ूब रोई

उस के अश्कों से
फ़साने का कोई हिस्सा कहीं भीगा नहीं है

और उस के दर्द की कोई निशानी तक नहीं मिलती
मगर सच है

कि रामायन में वैसा ग़म-ज़दा किरदार कोई भी नहीं मिलता
मैं उस किरदार से ख़ासा मुतअस्सिर हूँ

कि जब चौदह बरस के वास्ते श्री-राम को बन-वास जाना था
आमादा थे लखन भी भाई की सेवा में जाने को

ज़रा सा भी नहीं सोचा
कि जिस लड़की से पूरी ज़िंदगी का रब्त जोड़ा है

कि जिस ने ख़ूबसूरत नैन में कुछ ख़्वाब बोए हैं
उसे किस के सहारे छोड़ कर वो जा रहे हैं

मगर वो उर्मिला को छोड़ कर भाई के पीछे चल पड़े
कोई तड़पती आरज़ू सी

उर्मिला के होंठ से गिर कर
कई टुकड़ों में नीचे फ़र्श पर बिखरी हुई थी

ज़ोर से आवाज़ नन्ही फड़फड़ाई
और ज़ख़्मी हो गया था प्यार का वो एक दामन

जो कभी फूलों की ख़ुश्बू में भिगोया था
महज़ काँटे ही काँटे हर तरफ़ थे

इक इमारत बनने से पहले ही टूटी थी
तो या'नी उर्मिला चौदह बरस तक

ख़ल्वतों के मौसमों से रोज़ लड़ती थी
सहेली साथ थी

लेकिन सभी ख़ुशियों को वो इग्नोर करती थी
तमन्नाएँ अगर बादल की तरह घिरने लगती थीं

तमन्नाओं की बारिश में नहाने से वो बचती थी
चुरा लेती थी वो आँखें

अगर ग़लती से कोई आइना तारीफ़ कर देता
हवाएँ जिस्म में उस के अगर सिहरन जगा देतीं

तो ख़ुद को अपनी ही बाँहों में भर कर
ख़ुद से ये कहती

लखन आएँगे जल्दी मान भी जाओ बहारों
और सो जाओ सितारों तुम

कि मुझ को रात दिन जगने की आदत हो गई है
और मोहब्बत के लिए ये उम्र की दौलत पड़ी है

मगर जब ख़्वाहिशों के बाँध अक्सर टूटते होंगे
तो फिर सैलाब में

क्या क्या न बह कर खो गया होगा
हज़ारों अध-खिले अरमान भी मुरझा गए होंगे

तबस्सुम ने
किसी पल डस लिया होगा लबों को गर

तो सारा ज़हर मौक़ा देख कर
उस के बदन में रक़्स करता फिर रहा होगा

कभी कोयल की काली कूक गर कानों में पहुँची हो
तो शिरयानों में बहता ख़ून सारा जम गया होगा

पराए मर्द का कोई तसव्वुर छूने से पहले
वो लड़की डर गई होगी

अचानक मर गई होगी