अता हुई है तुझे रोज़ ओ शब की बेताबी
ख़बर नहीं कि तू ख़ाकी है या कि सीमाबी!
सुना है ख़ाक से तेरी नुमूद है लेकिन
तिरी सरिश्त में है कौकबी ओ महताबी!
जमाल अपना अगर ख़्वाब में भी तू देखे
हज़ार होश से ख़ुश-तर तिरी शकर-ख़्वाबी
गिराँ-बहा है तिरा गिर्या-ए-सहर-गाही
इसी से है तिरे नख़्ल-ए-कुहन की शादाबी!
तिरी नवा से है बे-पर्दा ज़िंदगी का ज़मीर
कि तेरे साज़ की फ़ितरत ने की है मिज़्राबी!
नज़्म
फ़रिश्ते आदम को जन्नत से रुख़्सत करते हैं
अल्लामा इक़बाल