शाम रौशन थी सुनहरी थी
मगर उतरी चली आती थी
ज़ीना ज़ीना
आ के फिर रुक सी गई
शब की मुंडेरों के क़रीं
इक सितारा भी कहीं साथ ही झुक आया था
जैसे वो छूने को था कानों के बाले उस के
गेसुओं को भी कि थे रुख़ के हवाले उस के
कुहनियाँ टेके हुए एक धड़कती हुई दीवार पे वो
खिलखिलाते हुए कुछ मुझ से कहे जाती थी
उस का आहँग-ए-सुख़न मुनफ़रिद लहन-ए-कलाम
ज़मज़मे फूटते थे जिस से शगूफ़ों की तरह
झील पे पंछी कोई पँख सँवारे जैसे
सुर की लहरों पे कोई दिल को पुकारे जैसे
साँवले चेहरे पे वो कानों के बाले की दमक
नाज़-ए-बे-जा भी न था रुख़ पे तफ़ाख़ुर की झलक
इतनी पुर-नूर थीं वो आँखें कि गुमाँ होता था
जैसे ख़ुर्शीद अभी डूब के उभरेगा उन्हीं आँखों से
लेकिन इस शाम उन आँखों से अचानक टूटे
दो सितारे जो लरज़ते रहे ता-देर लरज़ते ही रहे
जैसे कहते हों कि इस शाम-ए-गुरेज़ाँ का भरोसा क्या है
दिल न चाहे तो फ़क़त हर्फ़-ए-तमन्ना किया है
नज़्म
फ़क़त हर्फ़-ए-तमन्ना क्या है
असलम अंसारी