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फ़न | शाही शायरी
fan

नज़्म

फ़न

अहमद नदीम क़ासमी

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एक रक़्क़ासा थी किस किस से इशारे करती
आँखें पथराई अदाओं में तवाज़ुन न रहा

डगमगाई तो सब अतराफ़ से आवाज़ आई
''फ़न के इस औज पे इक तेरे सिवा कौन गया''

फ़र्श-ए-मरमर पे गिरी गिर के उठी उठ के झुकी
ख़ुश्क होंटों पे ज़बाँ फेर के पानी माँगा

ओक उठाई तो तमाशाई सँभल कर बोले
रक़्स का ये भी इक अंदाज़ है अल्लाह अल्लाह

हाथ फैले ही रहे सिल गई होंटों से ज़बाँ
एक रक़्क़ास किसी सम्त से नागाह बढ़ा!

पर्दा सरका तो मअन फ़न के पुजारी गरजे
''रक़्स क्यूँ ख़त्म हुआ? वक़्त अभी बाक़ी था''