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फ़लस्तीनी शोहदा जो परदेस में काम आए | शाही शायरी
falastini shohda jo pardes mein kaam aae

नज़्म

फ़लस्तीनी शोहदा जो परदेस में काम आए

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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(1)
मैं जहाँ पर भी गया अर्ज़-ए-वतन

तेरी तज़लील के दाग़ों की जलन दिल में लिए
तेरी हुर्मत के चराग़ों की लगन दिल में लिए

तेरी उल्फ़त तिरी यादों की कसक साथ गई
तेरे नारंज शगूफ़ों की महक साथ गई

सारे अन-देखे रफ़ीक़ों का जिलौ साथ रहा
कितने हाथों से हम-आग़ोश मिरा हाथ रहा

दूर परदेस की बे-मेहर गुज़रगाहों में
अजनबी शहर की बेनाम-ओ-निशाँ राहों में

जिस ज़मीं पर भी खिला मेरे लहू का परचम
लहलहाता है वहाँ अर्ज़-ए-फ़िलिस्तीं का अलम

तेरे आदा ने किया एक फ़िलिस्तीं बर्बाद
मेरे ज़ख़्मों ने किए कितने फ़िलिस्तीं आबाद