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एक वसिय्यत | शाही शायरी
ek wasiyyat

नज़्म

एक वसिय्यत

सादिक़

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दोनों हाथों में नंगी तलवारें सौंत कर
मैं अंधेरे पर टूट पड़ा

उसे टुकड़े टुकड़े कर देना चाहा
लेकिन उस ने मेरा हर वार ख़ाली कर दिया

मैं ने हाथ में बंदूक़ उठा ली
और उस पर दीवाना-वार गोलियाँ बरसाने लगा

सोचा था, उस का जिस्म छलनी कर डालूँगा
लेकिन उस में एक भी सुराख़ न कर सका

फिर मैं ने मिशअल उठा ली
और एक ज़बर-दस्त इरादा लिए आगे बढ़ा

चाहा था उस का चेहरा झुलस दूँगा
और उसे ज़िंदा जला कर राख कर दूँगा

मुझे यूँ बिफरा हुआ देख
अंधेरा सहम कर पीछे हट गया

लेकिन दूसरे ही लम्हे
उस ने ज़ोर से फूँक मार कर, मिशअल बुझा दी

फिर मैं ने एक और मंसूबा बनाया
चुपके चुपके एक सुरंग तय्यार की

लेकिन मुझे गुमान भी न था
कि डायना-माइट के फ़ीते को आग दिखाने से पहले

अंधेरा सुरंग में पानी भर देगा
आज मेरी रुख़्सत का वक़्त आ पहुँचा है

लोग!
जब कोई नौ-जवान, अंधेरे को ललकारे

तो तुम, उसे मेरी मिसाल न देना