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एक शायर एक नज़्म | शाही शायरी
ek shaer ek nazm

नज़्म

एक शायर एक नज़्म

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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अपने शहसवारों को
क़त्ल करने वालों से

ख़ूँ-बहा तलब करना
वारिसों पे वाजिब था

क़ातिलों पे वाजिब था
ख़ूँ-बहा अदा करना

वाजिबात की तकमील
मुंसिफ़ों पे वाजिब थी

मुंसिफ़ों की निगरानी
क़ुदसियों पे वाजिब थी

वक़्त की अदालत में
एक सम्त मसनद थी

एक सम्त ख़ंजर था
ताज-ए-ज़र-निगार इक सम्त

एक सम्त लश्कर था
इक तरफ़ मुक़द्दर था

ताइफ़े पुकार उठ्ठे
ताज-ओ-तख़्त ज़िंदाबाद

साज़-ओ-रख़्त ज़िंदाबाद
साज़-ओ-रख़्त ज़िंदाबाद

ख़ल्क़ हम से कहती है
सारा माजरा लिक्खें

किस ने किस तरह पाया
अपना ख़ूँ-बहा लिक्खें

चश्म-ए-नम से शर्मिंदा
हम क़लम से शर्मिंदा

सोचते हैं
क्या लिक्खें