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एक सवाल | शाही शायरी
ek sawal

नज़्म

एक सवाल

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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मेरे आबा-ओ-अज्दाद ने हुर्मत-ए-आदमी के लिए
ता-अबद रौशनी के लिए

कलमा-ए-हक़ कहा
मक़्तलों क़ैद-ख़ानों सलीबों में बहता लहू उन के होने का ऐलान करता रहा

वो लहू हुर्मत-ए-आदमी की ज़मानत बना
ता-अबद रौशनी की अलामत बना

और मैं पा-बरहना सर-ए-कूचा-ए-एहतियाज
रिज़्क़ की मस्लहत का असीर आदमी

सोचता रह गया
जिस्म में मेरे उन का लहू है तो फिर ये लहू बोलता क्यूँ नहीं?