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एक नज़्म | शाही शायरी
ek nazm

नज़्म

एक नज़्म

महमूद अयाज़

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गुम-शुदा ख़्वाब शब-ए-रफ़्ता के रौशन महताब
आज की रात सर-ए-बाम उतर आए हैं

गुम-शुदा चेहरे मिरे माज़ी के ज़र्रीं औराक़
एक इक कर के सर-ए-आम खुले जाते हैं

मुझ से कुछ कहती हैं ख़ामोश निगाहें उन की
उन की आँखों में अभी तक है वफ़ा की तनवीर

उन के माथे पे अभी तक है वही ताबानी
इन के पैरों में नहीं उम्र-ए-रवाँ की ज़ंजीर

उन से दुनिया को बदलने की क़सम खाई थी
उन से अब आँख मिलाते हुए शर्म आती है