शब के फाटक से परे
मैं ने चुराए बोसे
जो तेरे ज़ानू की रेहल पे ठिटके
धान के ख़ेमे में इक तू था
या पानी का लगातार ख़रोश
आख़िरी बार जवानी की किताब
दुख़्तर-ए-रज़ ने खोली
नज़्म
एक नज़्म
अब्दुर्रशीद
नज़्म
अब्दुर्रशीद
शब के फाटक से परे
मैं ने चुराए बोसे
जो तेरे ज़ानू की रेहल पे ठिटके
धान के ख़ेमे में इक तू था
या पानी का लगातार ख़रोश
आख़िरी बार जवानी की किताब
दुख़्तर-ए-रज़ ने खोली