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एक मुजस्समे की ज़ियारत | शाही शायरी
ek mujassame ki ziyarat

नज़्म

एक मुजस्समे की ज़ियारत

सय्यद काशिफ़ रज़ा

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तुम एक मुजस्समा
जो फ़नकार की उँगलियों में

परवान नहीं चढ़ा
तुम एक मुजस्समा

जिस पर संग-ए-मरमर
नर्म पड़ गया

मैं उन उँगलियों का दुख
जो तुम्हें ख़ल्क़ करने के

वज्द से नहीं गुज़रा
और उस दिल का

जो खिल नहीं सका
तुम्हारी पोरों के साथ साथ

तुम आती जाती साँसें
मैं

दुख उन साँसों का
जो तुम में शामिल नहीं हुईं

दुख उन आँखों का
कि जब खुल रहे थे

तुम्हारी गवाह नहीं रहें
तुम एक फूल

अपनी ज़ात से खिला हुआ
मैं दुख

तुम्हारे बदन से ज़ात तक
ना-रसा रास्तों का

उन के फ़ासलों का
मैं दुख अपने चेहरे का

जिस ने अपने चेहरे का
जिस ने अपनी तमाम शिकनें

तुम पर नर्म कर दें
दिल के उस ख़ला का

जो तुम्हें देख कर
आसमान जितना हो गया

मैं दुख अपने ख़्वाब का
तुम ने जिस की मज़दूरी नहीं दी

मैं दुख अपने ख़्वाब का
जो तुम्हारे बदन पर पूरा हो गया